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नज़राना इश्क़ का (भाग : 23)










विक्रम काफी स्पीड कार ड्राइव कर रहा था, फरी आज बेहद रोमांचित थी, क्योंकि वह पहली बार विक्रम के घर जा रही थी साथ ही उसके घरवालों का क्या रिएक्शन होगा यह सोचकर उसके मन में हल्का हल्का डर भी बैठा हुआ था। वह विक्रम से कुछ बातें करना चाह कर भी कर नहीं पा रही थी। थोड़ी देर में गाड़ी स्लो हुई और एक ओर गली में मुड़ी, उक के बाद कई छोटी मोटी गलियों से गुजरते हुए विक्रम ने एक बड़े से घर के सामने गाड़ी रोकी, वहां आसपास की सभी बेहद ऊँची और आलीशान नजर आ रही थी।  विक्रम ने कार का गेट खोला और मिरर में देखते हुए अपने बालों को सहला मैन गेट की ओर देखने लगा। एक व्यक्ति भागता हुआ आया और तुरंत ही गेट पर लगा ताला खोलकर गेट खोल दिया।

तभी उस घर का दरवाजा खुला, घर से एक नौजवान लड़का बाहर निकला जो कि विक्रम की भांति खूब ऊँचा और हृष्ट-पुष्ट था मगर दिखने में थोड़ा सा अलग था, जहां विक्रम का चेहरा थोड़ा लंबा था वहीं उस लड़के की चेहरे की बनावट हल्की गोलाई लेकर थी।

इससे पहले वह विक्रम के पास पहुँचता दरवाजे से एक महिला बाहर निकली, जिन्होंने पारम्परिक परिधान पहन रखे थे, उनके हाथों में सोने के कंगन, गले में लॉकेट, सिर पर लाल रंग की ओढ़नी थी। जो दिखने में बिल्कुल उसी युवक के भांति दिखाई दे रही थी जो कुछ पल पहले कार की तरफ आया था, फरी की नजर उस महिला पर पड़ी, वह उसे देखने में खो सी गयी।

"लो…, ला दिया तुम्हारी बहन! अब सामान अंदर रखो और गाड़ी पार्क कर दो..!" विक्रम ने कार की चाभी उसकी ओर उछलते हुए कहा।

"माँ देख लो इसे…! अपने बड़े भाई पर हुक्म चलाते लाज नहीं आती तुझे…!" उस युवक ने चाभी कैच करते हुए शिकायती लहजें में कहा।

"हेंह..! जिसको आये शरम.. उसके फूटे करम..!" विक्रम मुँह बनाता हुआ सिर झुकाकर बोला।

"वैष्णव..! तुम ही कर दो बेटा, ये सुबह सुबह रजाई से बाहर आ गया है वही बहुत है..! वो भी छुट्टी में..!" उनकी तरफ बढ़ती हुआ उस महिला ने हँसते हुए कहा।

"क्या मतलब मम्मी..!" विक्रम झेंप गया। "रोज कॉलेज जाता तो हूँ…!" उसने शिकायत की।

"अगर वैष्णव एक दिन जगाकर पहुँचाना छोड़ दे ना तो फिर टाइम से पहुंचकर दिखाना।" उसको एक ओर करती हुई उसकी मम्मी ने कहा।

"क्या मम्मी आप हमेशा बड़े की साइड लेती हो..!" विक्रम किसी छोटे बच्चे की तरह रूठते हुए बोला।

"उसी की मेहर से तू आज तक कूटने से बचा है! अब जल्दी जा अंदर से स्वागत का सामान लेकर आ तेरे चक्कर में बिटिया अभी कार में ही बैठी हुई है।" उसकी मम्मी ने उसे डांटते हुए कहा।

"लो जी…! जिससे कभी मिले नहीं वो अपना, मैं पराया हो गया… जुल्म ये कैसा गया..!" मुँह बिचकाते हुए विक्रम अंदर की ओर भागा।

"वैष्णव वहां क्या कर रहे हो बेटा, आओ अब अपनी बहन को उतारो और सामान निकलवाओ..!" विक्रम की मम्मी ने कार की गेट को पूरा खोलते हुए कहा। वैष्णव ने कोई जवाब नहीं दिया, मानो वह फरी के अजनबी होने के कारण उससे कुछ बोलने या करने से हिचक रहा था।

"अंदर क्यों बैठी हो बिटिया, बाहर आ जाओ..!"  उन्होंने फरी के साइड का गेट खोलकर कहा। फरी एकटक उन्हें देखने लगी। "जानती हूँ बेटा, हम तुम्हारे लिए अजनबी हैं मगर तुम विक्रम की बहन हो इस नाते मेरी भी बेटी हुई..! मैं तुम्हें जानती नहीं पर बहुत बार तुम्हारे लिए नाश्ता और लंच बनाया है। मेरी हमेशा से ख्वाहिश थी कि मेरी एक बेटी हो मगर नियति को कुछ और ही मंजुर था। विक्रम के बाद जब मैं प्रेग्नेंट हुई तो मैंने खूब मन्नते की, अपनी बेटी मांगी जिसमें मैं अपना अक्स देखना चाहती थी। मगर फिर…." कहते कहते विक्रम की माँ बेहद भावुक हो गयी, उनकी आँखों से आँसू टपककर फरी के सूट पर आ गिरा। फरी अब भी उन्हें एकटक देखे ही जा रही थी, मानों जैसे वह उनमें अपनी माँ की तलाश कर रही थी।

"अरे छोड़ो मैं भी क्या क्या बोले जाती हूँ, आज तुम पहली बार हमारे यहां आयी हो, चलो अब कार से तो उतरो…!" अपने आँसू पोछकर मुस्कुराते हुए उन्होंने कहा। "ये विक्रम ने बड़ा आलसी हो गया है अब तक नहीं आया।"

"आया मम्मी…!" विक्रम हाथ में थाल लिए दौड़ा चला आया, वैष्णव फरी के सामान निकाल रहा था, जो कि मात्र दो बैग ही थे।

"कान्हा जी तुझे हर बुरी नजर से बचाकर रखें मेरी बेटी…!" विक्रम की मम्मी उसे काजल का टीका लगाते हुए बोली। विक्रम थाल से फूल उठाकर फरी पर डालने लगा।

"क्या भाई आप भी..!" कहते हुए फरी विक्रम का हाथ पकड़ ली, उसकी आंखें बेहद नम हो चुकी थी।

"क्या हुआ? तुम रो क्यों रही हो पागल?" विक्रम ने उसके आंसू देख चिंतित स्वर में पूछा।

"मैंने मम्मी के जाने के बाद आज तक इतना प्यार और अपनापन कभी नहीं पाया..! थैंक यू सो मच भाई…!" फरी भावनाओ में बहती जा रही थी।

"अब क्या भाई को भी थैंक यू बोला जाता है?" विक्रम ने बनावटी गुस्सा करते हुए उसे घूरा।

"अरे नहीं… सॉरी भाई..!" फरी के शब्द लड़खड़ाए।

"लो अब..! यही तो बचा था! पहले थैंक यू फिर सॉरी..!" विक्रम ने मुँह लटका लिया।

"अब तुम यही न लड़ने लग जाओ..! अंदर चलो बेटी..!" विक्रम की मम्मी ने उसे डाँटते हुए फरी के कंधे पर हाथ रखकर दरवाजे की ओर ले जाते हुए कहा।

"इज्जत ही नहीं है अपनी कोई…!" कार की बोनट पर हाथ टिकाये विक्रम चेहरा लटकाकर बोला, यह देख उसकी मम्मी और फरी दोनो की हँसी छूट गयी।

"जा उनको उनका कमरा दिखा, अब हट यहां से.. गाड़ी पार्क करने दे!" वैष्णव ने उसे वहां से साइड करते हुए कहा।

"हाए रे मेरा दुख…! मुझसे ही नहीं संभाला जा रहा कोई और कैसे सम्भालेगा!" विक्रम ने मुँह लटकाकर कहा। "पापा आप कहाँ हो यार..! बचा लो अपने सपूत को..!" चिल्लाता हुआ विक्रम अंदर की ओर भागा।

"क्या हुआ विक्की? क्यों सुबह सुबह हल्ला किये जा रहा है?" विक्रम के पापा जो कि अभी चाय पीते हुए फरी से थोड़ी औपचारिक बातें कर रहे थे, उन्होंने कहा। वे नहा धोकर ऑफिस जाने के लिए तैयार नजर आ रहे थे। उनका चेहरा हल्का विक्रम से मिलता जान पड़ता था। उनकी मूंछे इस तरह तराशी हुई थी मानो नुकीली कटार हो, उनके चेहरे पर अजीब सा रौब झलक रहा था। माथे पर चंदन टीका और बदन पर श्वेत वस्त्र उनके इस रौब को और बढ़ा रहा था।

"कुछ नहीं…! आपको भी तो अभी मम्मी का साइड ही लेना होगा..!" विक्रम धीरे से फुसफुसाया।

"रजनी वैष्णव कहाँ है? तैयार हुआ या नहीं, हमें ऑफिस जाना है।" विक्रम के पापा ने उसकी मम्मी से पूछा।

"यही तो था अभी, पर आज आपको ड्राइवर के साथ जाना पड़ेगा, उसे आज घर रहने दीजिए।" विक्रम की मम्मी ने कहा।

"अरे घर पर क्या करेगा वो? ऑफिस में काम है आज उसका, वैसे भी यहां बस बोर ही होता रहेगा।" विक्रम के पापा ने चाय खत्म कर कप टेबल पर रखते हुए खड़े होकर कहा।

"आपसे तो बहस करना ही बेकार है, पर वो अपनी गाड़ी से जाएगा, आप ड्राइवर के साथ चले जाना।" विक्रम की मम्मी ने कहा।

"अरे नहीं मैं छोड़ दूंगा, ठीक है ना पापा?" विक्रम ने मुस्कुराते हुए पूछा, प्रत्युत्तर में उसके पापा ने हाँ में सहमति जताई।

"ठीक है आप दोनों जाओ, तब तक मैं बिटिया को कुछ खिला पिला लेती हूँ!" विक्रम की माँ रजनी ने हंसते हुए कहा। फरी अब भी शायद किसी गहरे ख्याल में खोई हुई थी, ऐसा लग रहा था मानों वह इस जगह और यहाँ के लोगो से अनजान होने के कारण किसी से कुछ नहीं बोल रही थी जबकि उसके मन में अनेकों सवाल उथल पुथल मचा रहे थे।

'ये कैसे हो सकता है? मैंने भाई से कभी उनकी फैमिली पिक नहीं देखी मगर यह कैसे पॉसिबल है..! ये तो बिल्कुल मेरी माँ के जैसी हैं… वही आवाज, वही चेहरा..सबकुछ बिल्कुल वही! कहीं मैं धोखा तो नहीं खा रही..! क्या यह कोई सपना है..?' ख्यालों की दुनिया में उलझी हुई फरी जैसे बाहरी दुनिया से बिल्कुल जुदा हो चुकी थी, उसने यह जांचने के लिए खुद को चिकोटी काटा, मगर यह को सपना नहीं बल्कि हकीकत था।

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सुबह होने के साथ निमय और जाह्नवी अपने फाइटिंग के प्रैक्टिस में जुट गए थे। किचन में बैठे उनके मम्मी और पापा आपस में कुछ बातें कर रहे थे।

"आजकल हमारे बच्चों में काफी बदलाव नजर आने लगा है न शर्माइन..!" गैस चूल्हे के बगल में लड़की के आसन पर बैठे मिस्टर शर्मा ने पूछा।

"आपको आज नजर आ रहा है?" मिसेज़ शर्मा ने होंठ भींचकर कलछुल दिखाते हुए उनको एक नजर देखा फिर अपने काम में जुट गयीं।

"अरे अरे गुस्सा काहे हो रही हैं…!" शर्मा जी ने मस्का मारते हुए प्यार से कहा।

"तो क्या करें? आरती उतारे आपकी? जब से बच्चे हुए हैं तब से कोई भी बात करनी हो बिना उनका बहाना किये करते नहीं..! अरे आपकी ही पत्नी हूँ मैं.. ये भी मैं ही बताऊं क्या..!" मिसेज शर्मा उनकी ओर घूमते हुए बोली।

"तो क्या करें.. जब तक उनका नाम न लो आप तो व्यस्त ही रहती हैं, अब भई दिल है.. बात करने को चाहता है आपसे करे  कि नहीं…!" मिस्टर शर्मा ने शिकायती लहजें में कहा।

"तो आपको बात भी तब करनी होती है जब मैं कोई काम कर रही होती हूँ, अब इंसान काम करे या आपसे बात… अब ये तो है नहीं कि पांच दस मिनट में आपकी बातें खत्म हो जाएं..!" मिसेज़ शर्मा ने रूठते हुए कहा।

"अरे शर्माइन नाराज काहे होती हो जी…! अब ये भी ना करे क्या..!" शरारती मुस्कान लिए मिसेज शर्मा को।मनाने की कोशिश करते हुए मिस्टर शर्मा बोले।

"सब बदल जाएंगे.. बस आपको छोड़कर.. कभी तो बड़े हो जाइए!" मिसेज शर्मा ने डांटते हुए कहा।

"हम बदलना ही तो नहीं चाहते…! हम हमेशा चाहते हैं कि जब भी आप हमें देखे तो वैसा ही पाए जब हमने आपकी मांग में सिंदूर डाला था, जब हम आपको अपने घर लेकर आये थे। उम्र बढ़ती है… प्यार तो वही रहता है न जी..!" मिस्टर शर्मा ने हँसते हुए कहा।

"धत्त हटिये आप यहां से…!" मिसेज़ शर्मा ने चूल्हे से सब्जी उतारते हुए उनको धक्का देकर कहा। शर्मा जी ने उनको मुस्कुरा देखा, मिसेज़ शर्मा के गाल शर्म से लाल हो गए थे।

"हम तो ना हट रहे जी, जल्दी खाना परोसिये.. अब आज दफ्तर जाने देना है कि नहीं!" मिस्टर शर्मा ने ढिठाई दिखाते हुए कहा।

"जाइये न..! आप भी बच्चों की तरह एक दो दिन की छुट्टी क्यों नहीं ले लेते, कम से कम त्यौहार पर तो घर रह लिया कीजिये!" मिसेज़ शर्मा ने पलके झुकाकर रहा।

"जाने का दिल किस कमबख्त का करता है, हम भी तो यही चाहते हैं कि यहीं रुक जाए, पर त्योहार पर काम और बढ़ जाता है, शायद कल छुट्टी मिले।" शर्मा जी ने बेहद मासूमियत भरे स्वर में कहा।

"अरे जाइये जी, अब खाना खाइये और निकलिए जल्दी…! और हाँ बच्चों के लिए कुछ मिष्ठान लेते आइयेगा..!" खाना परोसते हुए मिसेज़ शर्मा ने कहा।

"जैसी आपकी आज्ञा देवी!" मिस्टर शर्मा मुस्कुराए।

"जय हो देवता…!" मिसेज़ शर्मा ने फिर से हाथ में कलछुल लेकर दिखाते हुए कहा। मिस्टर शर्मा मुँह बनाकर खाने में जुट गए, उधर दोनो भाई बहन अपनी प्रैक्टिस खत्म कर नहाने धोने चले गए थे। थोड़ी ही देर में मिस्टर शर्मा अपने दफ्तर के लिए निकल गए।

क्रमशः….


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5 Comments

shweta soni

29-Jul-2022 11:40 PM

Nice 👍

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Pamela

03-Feb-2022 03:07 PM

Nicely written

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Thank you

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Seema Priyadarshini sahay

02-Feb-2022 05:32 PM

बहुत ही रोचक

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Thank you

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